लैला मजनू फ़िल्म की कहानी दो वाक्यों में समेटी जा सकती है। एक लड़के और लड़की को मोहब्बत हो जाती है। दोनों के परिवार इस मोहब्बत के खिलाफ हैं और अंत में लड़का और लड़की दोनों मर जाते हैं। इस कहानी को पांच मिनट की एक शार्ट फ़िल्म बना के यूट्यूब पे डाला जा सकता था लेकिन निर्देशक ने इस पांच मिनट की कहानी में 1 3 5 मिनट और जोड़ के एक दो घण्टे बीस मिनट की दिमाग को हिला देने वाली फ़िल्म बनाई है।
इम्तियाज़ अली और उनके चेले निर्देशक फ़िल्म बनाते वक्त अपनी ज़रुरत से ज़्यादा अक्ल से शायद ये नही सोच या देख पाते के एक अच्छी फ़िल्म में पटकथा का होना बहुत ज़रूरी होता है। यहाँ तो कथा ही नही है तो बेचारी पटकथा कहाँ से आती ?
फ़िल्म निर्देशक की उर्दू बाज़ी से भी भरी पड़ी है अब क्यूंकि फ़िल्म में कश्मीर है इसलिए उर्दू होना लाज़मी है लेकिन अगर आप मेरी बात समझें तो ज़रुरत से ज़्यादा शायरी और उर्दू के भारी लफ़्ज़ों का इस्तेमाल फ़िल्म को और भी बोझ भरा बना देता है।
फ़िल्म में थोड़ा बहुत देखने लायक दृश्य मध्यांतर से पहले आते हैं जब लड़के और लड़की की मोहब्बत को थोड़ा अलग ढंग से दिखाया गया है। लेकिन बाद में जब फ़िल्म धीरे धीरे त्रासदी और दुःख की तरफ बढ़ती है तो लगता है के निर्देशक और फ़िल्म का संपादन करने वाला दोनों आंसुओं में इतना डूबे थे के एक शायद दृश्यों को छोटा करना भूल गया और दूसरा दृश्यों को काटना भूल गया। इसलिए मध्यांतर के बाद या तो कोई दृश्य ख़त्म नही होता या अगला दृश्य शुरू होने तक बीच में कुछ ऊल जलूल सी घटना दिखायीं जाती हैं , जैसे मजनू पेड़ के पास बैठा पेड़ से बातें कर रहा है। फ़िल्म आपको मध्यांतर के बाद तो इतना पकाती है के मजनू बाद में पागल होता है आप पहले पागल होने लगते हैं।
इस तरह की पुरानी फिल्मों में कम से कम गाने तो अच्छे होते थे यहाँ गाने भी ठीक ठाक हैं लेकिन आते एक के पीछे एक फ़िल्म की शुरुआत में।
फ़िल्म को दुखांत और दुःख से भरी बनाने के चक्कर में निर्देशक इतना डूबे के फ़िल्म में कुछ कहानी के डालना भूल गए। इस फ़िल्म को आप अपने सब्र की सीमा को जांचने के लिए देख सकते हैं।
मेरी रेटिंग एक स्टार , देना में शून्य चाहता हूँ पर नायक नायिका के अच्छे अभिनय के लिए एक स्टार दिया जा सकता है।
No comments:
Post a Comment