पलटन हमारे इतिहास के एक भुला दिए गए कारनामे पर आधारित फ़िल्म है। फ़िल्म में एक अच्छी कहानी को अच्छे ढंग से कहने का एक बड़ा मौका जे पी दत्ता के पास था जिसे उन्होंने गँवा दिया।
नाथुला १९६७ की लड़ाई पर बनी ये फ़िल्म १५५ मिनट लम्बी है और पूरी लम्बाई में शायद दस मिनट की फ़िल्म देखने लायक है वो भी बस शुरुआत में। फ़िल्म की कहानी में बार बार निर्देशक दर्शकों में जोश पैदा करने की कोशिश करते हैं लेकिन फ़िल्म के संवाद और कुछ कलाकारों का अभिनय ढीला होने की वजह से फ़िल्म जोश की बजाय सर दर्द और नींद पैदा करती है।
फ़िल्म का क्लाइमेक्स जो इसका सबसे आकर्षक पहलू हो सकता था वही इस फ़िल्म का सबसे पकाऊ और उबाऊ हिस्सा है। क्लाइमेक्स अचानक ही शुरू होता है जो की नाथुला पास पर कब्ज़ा जमाने की चीनी कोशिश थी। इस सिलमैक्स के दृश्यों में कुछ ख़ास नयापन नही है। आप लगभग दो घंटे के ऊपर इस क्लाइमेक्स का इंतज़ार करते हैं और फिर एक दम ढीले ढाले से एक्शन से आप और निराश होते हैं।
पूरी फ़िल्म में शायद एक भी याद करने लायक संवाद नही है। सोनू सूद और अर्जुन रामपाल के साथ हर्षवर्धन का अभिनय थोड़ा बहुत ठीक है लेकिन कहानी के अंदर कुछ ख़ास नही होने की वजह से वो भी फ़िल्म को संभाल नही पाते हैं।
बुरा बस ये लगता है के जिस निर्देशक ने कभी देखने लायक फिल्में बनायीं जैसे बॉर्डर और ग़ुलामी वो इस बार इतनी बुरी तरह से कैसे चूका ?
फिल्म को न देखें तो बेहतर होगा इससे बेहतर आप जे पी दत्ता की पुरानी फिल्मों को टी वी देख लीजिये।
मेरी रेटिंग एक स्टार !
नाथुला १९६७ की लड़ाई पर बनी ये फ़िल्म १५५ मिनट लम्बी है और पूरी लम्बाई में शायद दस मिनट की फ़िल्म देखने लायक है वो भी बस शुरुआत में। फ़िल्म की कहानी में बार बार निर्देशक दर्शकों में जोश पैदा करने की कोशिश करते हैं लेकिन फ़िल्म के संवाद और कुछ कलाकारों का अभिनय ढीला होने की वजह से फ़िल्म जोश की बजाय सर दर्द और नींद पैदा करती है।
फ़िल्म का क्लाइमेक्स जो इसका सबसे आकर्षक पहलू हो सकता था वही इस फ़िल्म का सबसे पकाऊ और उबाऊ हिस्सा है। क्लाइमेक्स अचानक ही शुरू होता है जो की नाथुला पास पर कब्ज़ा जमाने की चीनी कोशिश थी। इस सिलमैक्स के दृश्यों में कुछ ख़ास नयापन नही है। आप लगभग दो घंटे के ऊपर इस क्लाइमेक्स का इंतज़ार करते हैं और फिर एक दम ढीले ढाले से एक्शन से आप और निराश होते हैं।
पूरी फ़िल्म में शायद एक भी याद करने लायक संवाद नही है। सोनू सूद और अर्जुन रामपाल के साथ हर्षवर्धन का अभिनय थोड़ा बहुत ठीक है लेकिन कहानी के अंदर कुछ ख़ास नही होने की वजह से वो भी फ़िल्म को संभाल नही पाते हैं।
बुरा बस ये लगता है के जिस निर्देशक ने कभी देखने लायक फिल्में बनायीं जैसे बॉर्डर और ग़ुलामी वो इस बार इतनी बुरी तरह से कैसे चूका ?
फिल्म को न देखें तो बेहतर होगा इससे बेहतर आप जे पी दत्ता की पुरानी फिल्मों को टी वी देख लीजिये।
मेरी रेटिंग एक स्टार !
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