इस फ़िल्म को देख कर मैं इस फ़िल्म के निर्माता की बहादुरी से बहुत प्रभावित हूँ। एक तो ऐसी फिल्म के ऊपर पैंतीस करोड़ लगा देने के लिए जिगर तो चाहिए। फिर अभी मैने किसी वेबसाइट पर पढ़ा के इस फ़िल्म के लिए निर्देशक को तीन करोड़ रूपया दिया गया है , ये बात कितनी सही या गलत है इसकी पुष्टि में नही कर सकता । मेरी समझ से तीन हज़ार के ऊपर निर्देशक ने जितना लिया है वो उनका मुनाफा है क्योंकि इस फ़िल्म पे मेहनत उन्होंने तीन हज़ार रुपये से ज़्यादा की नही की है।
हिंदी फ़िल्म का एक पुराना उसूल है के साहब फ़िल्म देखिये सवाल मत पूछिये। इस फ़िल्म को देखते वक्त आपको दिमाग तो बंद करना होगा ही शायद आप अपने हाथ भी बांध लेना चाहें क्योंकि मध्यांतर के बाद आप खुद को ही थप्पड़ मारना भी शुरू कर सकते हैं।
फ़िल्म की कहानी ये है के एक बेटा अपने बाप का बदनाम नाम फिर उबारने के लिए तरह तरह के भ्रष्ट पुलिस वालों को पॉपकॉर्न समझ के चिता पे भूनने लगता है। हुआ ये था के ग़लत इलज़ाम में फंसा पिता अपने को जला लेता है।
फ़िल्म का स्क्रीनप्ले इतना घटिया है के एक पात्र अपने सगे भाई से टकराता है लेकिन उसे पहचान नही पाता। जिन लोगों को हत्यारा मार रहा है उन्हीं की पेंटिंग बना के प्रदर्शित कर देता है। मनोज बाजपेयी जिस अफसर के साथ दिन रात रहते हैं उसी की बेटी को नही पहचानते। जॉन क्लाइमेक्स में एक ज्ञानी बाबा की तरह सूचना देते हैं के उनके पिता को किसने फंसाया था और बिना सबूत वो आदमी अपना गुनाह मान भी लेता है।
फ़िल्म की शुरआत में कुछ अच्छे संवाद हैं लेकिन शायद संवाद लिखने वाले का चेक मध्यांतर के आस पास के संवाद लिखते तक बाउंस हो गया इसलिए मध्यान्तर के बाद सारे पात्र अपनी अपनी समझ के हिसाब से संवाद बोलते हैं। मनीष चौधरी ने दूर किसी चिड़िया को घूरने वाले आदमी की एक्टिंग की है जो कभी किसी की आँखों में नहीं देखता और कहीं न कहीं और आसमान की तरफ या किसी ऊँची बिल्डिंग को देख के बात करता है। क्लाइमेक्स में उन्होंने शायद पहली बार ओवर एक्टिंग की है और ये निर्देशक का सबसे बड़ा करिश्मा है।
फ़िल्म की नायिका खूबसूरत हैं तब तक जब तक वो बोलना शुरू नही करती।
हर जगह जॉन अब्राहम नारायण भगवन अवतार से प्रकट होते हैं और न्याय करते हैं। स्पाइडरमैन और सुपरमैन को भी अक्सर टीवी या पुलिस के साइरन से गड़बड़ का पता चलता है लेकिन जॉन इन सबसे कहीं आगे हैं।
एक ज़माने में सनी देओल कभी खम्भा कभी हैंडपंप फोड़ते थे ,फर्क ये था के सनी की फिल्में वो डायरेक्टर बनाते थे जिन्हें अपना काम और कहानी दोनों मालूम थीं , लेकिन जॉन से कोई मोटरसाइकिल उठवाने लगा है कोई कार उठवा रहा है और इस फ़िल्म के निर्देशक ने उनसे टायर फटवाया है। वो किसी को मुक्का मार रहे हैं तो वो तीन दीवार तोड़ के गिर रहा है। ऐसे दृश्यों के अलावा फ़िल्म में जलती हुई आग के तरह तरह के दृश्य हैं।
बात बात पे जॉन के डोले दिखाए गए हैं। जहाँ जहाँ डोले दिखने में तकलीफ हुई वहां वहां जॉन स्वयं का वस्त्र हरण करके डोले दिखाते हैं।
मनोज बाजपेयी ने ये फ़िल्म अपनी किसी नयी ज़मीन का लोन चुकाने के लिए की होगी। क्योंकि उनके जैसा एक्टर इस सर्कस में कर क्या रहा है वो समझ नही आया।
फ़िल्म ज़रूर देखें आखिर दान पुण्य करना भी ज़रूरी है और निर्माता के भी बीवी बच्चे होंगे।
फ़िल्म ज़रूर देखें आखिर दान पुण्य करना भी ज़रूरी है और निर्माता के भी बीवी बच्चे होंगे।
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