मुल्क फ़िल्म की शुरआत में एक दृश्य आता है जब एक आतंकवादी सुरक्षा बल के एक अधिकारी की गोलियों का शिकार हो जाता है। मरते समय अचानक निर्देशक हमें उसके बचपन के पल दिखाने लगते हैं जिसमे एक प्यारा सा बच्चा बार बार अब्बू अब्बू बोल रहा है। इस आतंकवादी की वजह से सोलह लोग मारे गए हैं एक बम धमाके में लेकिन जब निर्देशक ऐसा कुछ दिखाता है तो लगता है के वो हमसे एक आतंकवादी के लिए सहानुभूति की उम्मीद लगा रहा है।
एक संयुक्त परिवार के छोटे से घर में दो लड़के आतंकवाद की विचारधारा की तरफ झुकने लगते हैं लेकिन हर वक्त छोटे से घर में बसा ये परिवार इस बात को जान नहीं पाता। ध्यान रहे के ये परिवार लगभग हर वक्त साथ साथ घुला मिला रहता है।
जो सुरक्षा बल का अधिकारी खतरनाक मिशनों में अपनी जान तक दाव पे लगता है उसे अपनी नाक के नीचे आतंकवादी बनते बच्चों की जानकारी नही रखने वाला शख्स ज्ञान दे के जाता है फ़िल्म के अंत में और हमें ऐसा दिखाया गया है के उस अधिकारी को पश्चाताप सा हो रहा है।
मुल्क की पटकथा और उसके सन्देश की सोच इतनी लचर और छोटी है के फ़िल्म देखते देखते आप ये सोचने लगते हैं के इस बकवास फ़िल्म को मीडिया के एक बड़े वर्ग ने बोरे भर भर के सितारे क्यों बांटें हैं ?
कुछ समय पहले बिला वजह फंसा दिए गए एक निर्दोष मुस्लमान की कहानी पर अक्षय कुमार की जॉली एल एल बी २ आयी थी जिसकी कहानी में सन्देश भी था जिसकी न्यायालय से जुड़ी कहानी में कसाव और तथ्य आधारित वकीलों की बहस थी। इस फ़िल्म में दोनों वकील अपनी अपनी ढपली सी बजा रहे हैं। निर्देशक ने जो थोड़ा बहुत तथ्य दिखाने की कोशिश की है उनका झुकाव भी उसने जज़बाती बना दिया है। फ़िल्म के अंत में तापसी रोते रोते अपनी दलील पेश करती हैं ठीक है इससे थोड़ा जज़्बाती दर्शक ताली बजा देगा लेकिन फ़िल्म इससे बहुत फूहड़ दिखती है।
निर्देशक ने फ़िल्म को हिन्दू मुस्लमान एकता पर दिखाने बनाने की कोशिश की है लेकिन कोशिश इतनी सतही और घिसी पिटी है के ये फ़िल्म सिवाय एक सौ चालीस मिनट की बरबादी के और कुछ है नही। मेरी रेटिंग आधा स्टार वो भी ऋषि कपूर के अभिनय के लिए।
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