पटाखा लगभग बिना किसी पब्लिसिटी के रिलीज़ हुई फिल्म है और शायद इस महीने की सबसे बेहतर फ़िल्म यही है। कुल मिला कर फ़िल्म में जो हास्य से भरा मनोरंजन का पहलू है वो पूरी फ़िल्म पे छाया रहता है। मध्यांतर तक तो ये फ़िल्म इतनी तेज़ गती से भागती है के आपको लगता है के विशाल भरद्वाज कॉमेडी के मामले में शायद डेविड धवन के गुरु बन सकते हैं। मैं ये बात डेविड धवन का सम्मान करते हुए ही लिखा रहा हूँ वो बहुत ही बड़े कॉमेडी फिल्मों के निर्देशक हैं।
पटाखा एक सीढ़ी कहानी है हर वक़्त लड़ती झगड़ती दो बहनों की। एक का नाम बड़की और दुसरे का छुटकी। यानी राधिका मदन और सान्या मल्होत्रा। ये दोनों बहनें एक दुसरे से दूर जाना चाहती हैं लेकिन ससुराल भी एक ही मिल जाती है। यहाँ से ये दोनों एक दुसरे से अलग होने का प्रयास करती हैं और इसके बाद क्या होता है यही फ़िल्म की कहानी है।
पटाखा का सबसे ज़बरदस्त पहलू है इसके हास्य पर आधारित सारे पात्र जा बड़की और छुटकी दो बहनें हों या डिपर या उनके पिता व गांव का ठरकी पटेल या फिर उनके दो प्रेमी , सारे पात्र आपको लगभग हरेक वक़्त हंसाते ही हैं। इन पात्रों को निर्देशक ने कहानी में बड़े अच्छे ढंग से बिठाया है। यानी कहानी सिर्फ़ दो बहनों की नही रहती। कहीं डिपर महत्वपूर्ण है तो कहीं लड़कियों का बाप। आप इस फ़िल्म में एक कलाकार उठा कर ये नही कह सकते के इसने ढीला अभिनय किया है।
पात्रों के आपस के पल और भी फ़िल्म को ऊपर उठाते हैं जैसे वो दृश्य जब विजय राज़ अपनी बेटियों को बीड़ी पीने के बुरे नतीजों के बारे में सिखाते हैं। या वो दृश्य जब डिपर अपने ढंग से नारद जैसे बड़ी बहन को भड़काते हैं।
ये फ़िल्म देखते देखते शायद आप अपने भाई या बहनों के साथ हुए झगड़ों के बारे में भी सोचें।
निर्देशक ने थोड़ा बहुत इस फ़िल्म के ज़रिये शांति से रहने की सलाह दी है और अपने पड़ोसियों से मेल मिलाप से रहने का भी हल्का सा सन्देश दिया है। हालाँकि निर्देशक को ये भी कहना चाहिए था के शांति के लिए दोनों तरफ से ईमानदार पहल ज़रूरी है।
इस मनोरंजक पैसा वसूल फ़िल्म को मेरी तरफ से चार स्टार
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