Saturday, September 29, 2018

हँसी के पलों से भरपूर दिल को छूने वाली ज़मीन से जुड़ी कहानी !


पटाखा लगभग बिना किसी पब्लिसिटी के रिलीज़ हुई फिल्म है और शायद इस महीने की सबसे बेहतर फ़िल्म यही है। कुल मिला कर फ़िल्म में जो हास्य से भरा मनोरंजन का पहलू है वो पूरी फ़िल्म पे छाया रहता है। मध्यांतर तक तो ये फ़िल्म इतनी तेज़ गती से भागती है के आपको लगता है के विशाल भरद्वाज कॉमेडी के मामले में शायद डेविड धवन के गुरु बन सकते हैं। मैं ये बात डेविड धवन का सम्मान करते हुए ही लिखा रहा हूँ वो बहुत ही बड़े कॉमेडी फिल्मों के निर्देशक हैं। 


पटाखा एक सीढ़ी कहानी है हर वक़्त लड़ती झगड़ती दो बहनों की।  एक का नाम बड़की और दुसरे का छुटकी।  यानी राधिका मदन और सान्या मल्होत्रा। ये दोनों बहनें एक दुसरे से दूर जाना चाहती हैं लेकिन ससुराल भी एक ही मिल जाती है। यहाँ से ये दोनों एक दुसरे से अलग होने का प्रयास करती  हैं और इसके बाद क्या होता है यही फ़िल्म की कहानी है। 

पटाखा का सबसे ज़बरदस्त पहलू है इसके हास्य पर आधारित सारे पात्र जा बड़की और छुटकी दो बहनें हों या डिपर या उनके पिता व गांव का ठरकी पटेल या फिर उनके दो प्रेमी , सारे पात्र आपको लगभग हरेक वक़्त हंसाते ही हैं। इन पात्रों  को निर्देशक ने कहानी में बड़े अच्छे ढंग से बिठाया है। यानी कहानी सिर्फ़ दो बहनों की नही रहती। कहीं डिपर महत्वपूर्ण है तो कहीं लड़कियों का बाप। आप इस फ़िल्म में एक कलाकार उठा कर ये नही कह सकते के इसने ढीला अभिनय किया है। 

पात्रों के आपस के पल और भी फ़िल्म को ऊपर उठाते हैं जैसे वो दृश्य जब  विजय राज़ अपनी बेटियों को बीड़ी पीने के बुरे नतीजों के बारे में सिखाते हैं।  या वो दृश्य जब डिपर अपने ढंग से नारद जैसे बड़ी बहन  को भड़काते हैं। 

ये फ़िल्म देखते देखते शायद आप अपने भाई या बहनों के साथ हुए झगड़ों के बारे में भी सोचें। 

निर्देशक ने थोड़ा बहुत इस फ़िल्म के ज़रिये शांति से रहने की सलाह दी है और अपने पड़ोसियों से मेल मिलाप से रहने का भी हल्का सा सन्देश दिया है। हालाँकि निर्देशक को ये भी कहना चाहिए था के शांति के लिए दोनों तरफ से ईमानदार पहल ज़रूरी है। 

इस मनोरंजक पैसा वसूल फ़िल्म को मेरी तरफ से चार स्टार 



Video Review Of Pataakha


Friday, September 28, 2018

बुरे हालातों पर अच्छाई की जीत की कहानी है सुई धागा !



सुई धागा मौजी (वरुण धवन) और उसकी पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा) के संघर्ष की कहानी है।  मौजी के हालातों में आर्थिक तंगी भी है और मजबूरी भी लेकिन फिर भी उसका तकिया कलाम है - सब बढ़िया है। एक दिन उसकी पत्नी उसकी बेइज़्ज़ती होते देखती है और कहती है के ऐसी ज़िन्दगी से बेहतर है के वो अपने दादा की विरासत कपड़ों की सिलाई को फिर आगे बढ़ाये , मौजी कई परेशानी झेलता इस रस्ते पर आगे बढ़ता है और एक दिन वो और उसकी पत्नी अपनी मंज़िल पा लेते हैं। सिर्फ अपनी मंज़िल ही नही पाते वो अपने आस पड़ोस के लोगों को भी एक अच्छे काम पे लगा लेते हैं जो सिलाई का काम छोड़ कुछ और कर रहे थे।

सुई धागा एक सुखांत कहानी है इसलिए हम में से कुछ फ़िल्म के अंत को हजम न कर पाएं लेकिन निर्देशक ने इतना तो दिखाया है के मेहनत और अच्छी सोच के सहारे आदमी ज़िन्दगी की जंग जीत भी सकता है और सुकून भी पाटा है।

फ़िल्म के तीन ज़बरदस्त पहलू हैं।

पहला - इसके कलाकारों का अभिनय और जिस तरह से निर्देशक ने उन्हें उभारा है।  जैसे वरुण और अनुष्का का अभिनय तो अच्छा है ही साथी कलाकारों ने भी रंग जमाया है ख़ास कर वरुण के पिता के पात्र में रघुबीर यादव ने क्या छाप छोड़ी है। छोटे छोटे पात्र जैसे पलटेराम और मौजी का मुस्लमान दोस्त जो उसकी बड़ी मदद कर देता है।

दूसरा - फ़िल्म की कहानी अपनी सादगी को न छोड़ते हुए भी आपको बांध  लेती है और कभी भावनात्मक दृश्यों से जैसे रघुबीर यादव अचानक आकर सिलाई की मशीन 'को ठीक कर देते हैं और कभी ज़बरदस्त हास्य के दृश्यों से फ़िल्म आपको परदे से ध्यान हटाने नही देती।

तीसरा -  फ़िल्म में अन्नू मल्लिक ने आरसे के बाद अपना जौहर दिखाया है और कम से कम दो गाने ऐसे हैं जो फ़िल्म को गहरायी दे जाते हैं।

सुई धागा को आप महान फ़िल्म की तरह नही देखें एक अच्छी मनोरंजक फ़िल्म की तरह देखें तो ये फ़िल्म आपको ज़रूर पसंद आएगी।


Video Review of Sui Dhaaga


Friday, September 21, 2018

बत्ती गुल होगी आपके दिमाग की और मीटर चालू रहेगा आपके बोरियत से भरे आंसूंओं का !



इस फ़िल्म के ट्रेलर को देख कर आपको जितनी उम्मीद हुई होगी वो सारी उम्मीद फ़िल्म शुरू होने के लगभग बीस मिनट में ख़त्म सी होने लगती है। उसके बाद धीरे धीरे फ़िल्म की बोरियत से आपकी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगता है शायद यही निर्देशक की तरफ से बत्ती गुल का मतलब था  और फिर जब आपको एहसास होता है के अब आप पूरे दो घंटे और बोर होने वाले हैं तो आपकी आँखों से जो आँसूंओं की धार निकलती है शायद उसी से निर्देशक का मतलब मीटर चालू था।

लगभग पौने दो घंटे की इस फ़िल्म में थोड़ा बहुत भी मनोरंजन नही है।  कुछ एक आध संवाद अच्छे हैं और तीनों मुख्य कलाकारों ने अच्छा अभिनय किया है। अगर आपने ट्रेलर देखा है तो समझ लीजिये के जितनी फ़िल्म है वो देख ली है।

फ़िल्म में कोर्ट के दृश्य अंत में एकदम स्तरहीन है और मज़ाकिया कम फूहड़ ज़्यादा हैं। फ़िल्म की कहानी जितनी अच्छी हो सकती थी उससे कहीं ज़्यादा फ़िल्म घटिया बनी है।

फ़िल्म में प्रेम त्रिकोण ठूंसा गया है , अदालत की लड़ाई ठूंसी गयी है और कॉमेडी भी ठूंसने की कोशिश की गयी है बस निर्देशक निर्देशन करना भूल गए। इस फ़िल्म को आप अगर न देखें तो आप अपना समय और पैसा बचने वाले समझदार कहलायेंगे और अगर आप इस समीक्षा को पढ़ के भी फ़िल्म देखते हैं तो आप को कम से कम दानवीर तो कहा ही जा सकता है।

मेरी रेटिंग एक स्टार


Video Review of Batti Gul Meter chalu

Friday, September 14, 2018

The success of Stree indicate the changing trends of Bollywood !


There was a time not so long ago. By the way that time is not yet gone totally when Bollywood makers would focus making cinema in a camp based manner. Certain directors and production houses would have certain favourite actors.  The story would come in later. A lot many character actors would also be the regular team.

The multiplex audiences as we call them are slowly forcing a change in that system. Today you do not have just camp based cinematic efforts. There have many such instances of box office smashers but Stree is one of the biggest examples of this concept based cinema now taking firm roots. As these lines are being written Stree is all set to breach the 100 crore mark. This is the second concept base movie in the last few years to cross that line with a not so well known box office pulling stars in it. The last time that breach happened was with Hindi Medium which had Irfan in it. Veerey Di Wedding could have taken that mantle but unfortunately it had one heavy duty star in it called Kareena Kapoor  so while it still does have a healthy claim to a concept based movie working we cannot but deny that Kareena’s presence would have brought in some crowds. You might also note that VDW did not touch 100 crores.
Stree has a very weak star cast. Shraddha Kapoor is its biggest star and she has been out of box office favour for some time now. Add the fact that the plot moves reasonably on her presence. Yet Stree has worked with names like Rakumar Rao and Pankaj Tripathi. Frankly I had to google search to find names of certain other actors in the movie after I saw the movie.
The success of Stree is notable when other hyped movies from bigger production house have fallen like nine pins around it. Alongside Stree was a bigger name Yamla Pagla Deewana which had two or our biggest heavy duty stars till date – Dharmendra and Sunny Deol. The movie crashed because it had zero regards for a story or concept. Those who saw Yamla Pagla Deewana loved Stree more and those who saw Yamla Pagla Deewana after Stree probably went back to watch Stree again.
Stree’s numbers are remarkable because horror as a genre has not been a money minting genre in India and you would only blame directors who keep repeating the same story lines across same movies which are even called the same like Raaz one two three and reloaded.  Stree did not have a remarkably great horror story either but it was conceptualized in a small town environment and balanced with a love story.
The biggest example that audiences will buy concepts big time are many.  Aamir and Akshay are driving their career simply on concept base cinema. Rajkumar Hirani has driven big money at box office just on this. In short these stars and director have caught on the audience pulse which is concept based now.
Talking of the biggie 2.0 which is around the corner and you will find a director’s hard enough effort to push a concept to us.  The fact that trailers of movies like Patakha and Love Sonia are creating buzz and views on internet is because audiences are fed up with the release on 5000 screens two line plot movies.
You have stars who are now trying to latch on to this new trend and redefine themselves therefore you see a Vidya Balan in a Tumhari Sulu a Deepika Padukone in Piku. Audiences loved these movies because yet again these were beautiful concepts delivered with conviction.
Concept based cinema has also debunked the myth of audiences not interested in cinema watching beyond weekends. Stree has worked its numbers steadily on weekdays too. Compare this with how some heavy duty superstar garbage content which was pushed to us in 3D versions too have crashed at box office in recent times.
The last and not least for sure contribution of this concept based cinema is that it is pulling the rug from the feet of our arrogant stars who release solo movies across screens on major weekends and leave us with no choice but to go through the below average content that they dish out. Concept cinema is pulling away the audiences and cracking their monopoly. Well done.







मनमर्ज़ियाँ की जगह फ़िल्म का नाम पंजाब वेलवेट रखते तो बेहतर होता !

अनुराग कश्यप की फ़िल्म से आपको दो ही तरह का अनुभव होता है।  या तो वो आपकी अंतरात्मा तक से वाह वाह करवाती है जैसे गैंग्स ऑफ़ वास्सेय्पुर या आपकी उसी अंतरात्मा से कठोर आलोचना निकलवाती है जैसे बॉम्बे वेलवेट।

मनमर्ज़ियाँ पुरानी कई हिट त्रिकोण फिल्मों का कश्यपिकरण है और ये इतना घटिया है के फ़िल्म का नाम अगर अनुराग की अब तक की सबसे बेढंगी फ़िल्म बॉम्बे वेलवेट की तर्ज़ पर पंजाब वेलवेट रख देते तो हम कम से कम उन्हें ईमानदारी के नंबर तो दे देते।

फ़िल्म में कहानी तीन वाक्यों में समेटी जा सकती है। रूमी और विक्की प्यार करते हैं। बीच में रॉबी आ धमकता है। रूमी एक को चुन लेती है। अब इस तीन वाक्य की कहानी में कई रंग हो सकते थे। तापसी और अभिषेक के अभिनय से रंग थोड़ा है भी लेकिन विक्की कौशल का पात्र इतना सतही लिखा गया है के फ़िल्म झटके ले ले के आगे बढ़ती है।



ऊपर से अनुराग कश्यप की पुरानी अकड़ यहाँ भी फ़िल्म को ले डूबती है के भाई पटकथा गयी तेल लेने मैं तो अपने ढंग से फ़िल्म दिखाने वाला हूँ लिहाज़ा फ़िल्म में कभी कोई नदी किनारे बैठ के टसुए बहाने लगता है।  कभी बिना बात की दे दना दन लिपटा  चिपटी चालू हो जाती है।  कभी  अभिषेक बच्चन किसी न किसी को घूरते हुए बैठे रहते हैं। विक्की कौशल को जो मन में आये कहो और करो वाला पात्र तो दिया ही गया है और उन्होंने इस पात्र की सहारे दिमाग का दही लस्सी मठ्ठा सब बना डाला है।

अनुराग कश्यप की पिछली फ़िल्म मुक्काबाज़ की शोले से पैंतीस और लगान से पचपन गुना आगे की फ़िल्म  समीक्षकों ने कहा था। लोग ने तारीफ लिखते लिखते कलम कागज़ दावत छाती सब फाड़ ली थी। फ़िल्म ने घिसट घिसट के दस करोड़ छाप लिए थे। ये फ़िल्म दस करोड़ भी पकड़ ले तो गणपति का चमत्कार माना जाना चाहिए।



मेरी रेटिंग एक स्टार वो भी अभिषेक के सधे हुए और तापसी के जुझारू अभिनय के लिए।



video review of Manmarziyan


Tuesday, September 11, 2018

शायद एक ज़माने के बाद हंसी से भरा एक ट्रेलर आया है !



बधाई हो का ट्रेलर कोई आम ट्रेलर नही है। उम्र के लगभग आखिरी पड़ाव पे पहुंचा एक बाप अपने बेटों को फिर से बाप बन जाने की बात बोलने की जो ज़बरदस्त कोशिश कर रहा है वहाँ से जो आपकी हंसी शुरू होती है तो फिर पुरे ट्रेलर में आप की हंसने की ताकत को जैसे निर्देशक निचोड़ लेता है।


नीना गुप्ता ने क्या ज़बरदस्त अभिनय किया है फ़िल्म में जो ट्रेलर में भी दिख रहा है। सकपकाए झल्लाए बेटे के रंग में आयुष्मान खूब रंगे हैं। लेकिन हमारे आस पास के समाज में अक्सर हो जाने वाली ऐसी घटना को निर्देशक ने क्या रोचक ढंग से सबके सामने रखा है वो इस ट्रेलर में दिख रहा है।

ऐसा अक्सर होता है के ट्रेलर जितना काबिल हो फ़िल्म उतनी नालायक होती है। लेकिन कम से कम इस ट्रेलर को देखकर आपको लगता है के ये फ़िल्म शायद आयुष्मान की झोली में एक और सुपरहिट बनकर गिरेगी।

ट्रेलर में संवादों ,घटनाओं और सारे पात्रों के हाव भाव का एक ही मकसद है - आपको हँसाना। इसमें ये कामयाब ट्रेलर है। ट्रेलर का पहला और आखरी मकसद होता है के आप फ़िल्म की तरफ आकर्षित हों मेरा मानना है के इस मापदंड पर  इक्कीस साबित हुआ है।


Badhaai Ho trailer has got our attention !

You could absolutely go on and on about the trailer of  Badhaai Ho but I guess one thing is sure this one will rock the box office big time. The movie has broached a topic which has taken place in so many homes. It is served with epic brutal honesty and comedy.



The disgruntled son. His caught in the situation girlfriend. A wife who blames her husband for the situation. A caught in multiple complex situations husband. Social Taboos. All these elements are brought inw ith a tinge of solid humour.

The one liners are epic like the girl answering how a question about how did her boyfriend's mother got pregnant. Or the angry wife telling her husban chitkani nahi lagegi aaj se.

The 184 second trailer neve loses its fizz for a moment and if the movie is like this then the cinema owners will grin probably ear to ear.

This is how cinema should be entertainment that is rich and has no frills. Hoping the movie is rocking this trailer has made Badhaai Ho one of the anticipated movies of the year now.


Saturday, September 8, 2018

द नन - बनी क्यों और आपने देखी क्यों ये सवाल आपको फ़िल्म से ज़्यादा डरायेगा ?





द नन मशहूर फ़िल्म द कॉन्ज्युरिन्ग का पूर्व से भी पूर्व भाग है। जो भी इसका मतलब हो उसपे आप ज़्यादा सर न लगायें। कुल मिला कर ये एक नयी कहानी है जिसका अंत एक कॉन्ज्युरिन्ग फ़िल्म के आरंभ से जुड़ा है।

फ़िल्म  एक घने जंगल के बीच सुनसान पहाड़ियों में बसे एक चर्च पर आधारित है जिसपे एक बड़ी शैतानी ताकत वलक कब्ज़ा करने की फ़िराक में है और यहीं से पूरी दुनिया  पे वो हुकूमत करेगा।
तीन लोग मिलकर इस शैतान से चर्च को आज़ाद कराते हैं और इस बीच में वो सब होता है जो यहाँ हिंदुस्तान में राम गोपाल  वर्मा और विक्रम भट्ट सात सौ सत्तावन बार अपनी हॉरर फिल्मों में दिखा चुके हैं। इनमे से एक का नाम वी आई पी कंपनी के मशहूर कच्छे पर आधारित है - फ्रेंची।

फ़िल्म में  कुछ दृश्य आपको थोड़ा बहुत  डराते  हैं लेकिन ज़्यादातर समय ये ९६ मिनट की फ़िल्म भी आपको पकाती ही है। बाकी कहानी में थोड़ा सा नयापन डालने की कोशिश ये भी की गयी के एक चर्च के अंदर ही शैतान भी रह रहा है। लेकिन निर्देशन इतना घटिया है के अगर तकनीकी महानता को हटा दिया जाए तो ये फ़िल्म किसी रामसे बंधुओं की फ़िल्म से कोई बहुत अलग नही है।

अगर थोड़ी देर घर से बाहर सस्ते ऐ सी में सोने का इरादा है तो ज़रूर देखें बाकी इससे बेहतर हॉरर  कॉमेडी बॉलीवुड की स्त्री है !

एक स्टार क्यूंकि फ़िल्म एक दूर देश से बन के आयी है और हमारी सभ्यता में  मेहमानों की बेइज़्ज़ती नही करते !


The Nun will remind you of that famous Indian Underwear brand besides being a dud.


आधी रोटी पे दाल लिए घूमते निर्देशक की घटिया कोशिश है लैला मजनू !



लैला मजनू फ़िल्म की कहानी दो वाक्यों में समेटी  जा सकती  है। एक लड़के और लड़की को मोहब्बत हो जाती है। दोनों के परिवार इस मोहब्बत के खिलाफ हैं और अंत में  लड़का और लड़की दोनों मर  जाते हैं। इस कहानी को पांच मिनट की एक शार्ट फ़िल्म बना के यूट्यूब पे डाला जा सकता था लेकिन निर्देशक ने इस पांच मिनट की कहानी में 1 3 5 मिनट और जोड़ के एक दो घण्टे बीस मिनट की दिमाग को हिला देने वाली फ़िल्म बनाई है।



इम्तियाज़ अली और उनके चेले निर्देशक फ़िल्म बनाते वक्त अपनी ज़रुरत से ज़्यादा अक्ल से शायद ये नही सोच या देख पाते के एक अच्छी फ़िल्म में पटकथा का होना बहुत ज़रूरी होता है।  यहाँ तो कथा ही नही है तो बेचारी पटकथा कहाँ से आती ?

फ़िल्म निर्देशक की उर्दू बाज़ी से भी भरी पड़ी है अब क्यूंकि फ़िल्म में कश्मीर है इसलिए उर्दू होना लाज़मी है लेकिन अगर आप मेरी बात समझें तो ज़रुरत से ज़्यादा शायरी और उर्दू के भारी लफ़्ज़ों का इस्तेमाल फ़िल्म को और भी बोझ भरा बना देता है।

फ़िल्म में थोड़ा बहुत देखने लायक दृश्य मध्यांतर से पहले आते हैं जब लड़के और लड़की की मोहब्बत को थोड़ा अलग ढंग से दिखाया  गया है। लेकिन बाद में जब फ़िल्म धीरे धीरे त्रासदी और दुःख की तरफ बढ़ती है तो लगता है के निर्देशक और फ़िल्म का संपादन करने वाला दोनों आंसुओं में इतना डूबे थे के एक शायद दृश्यों को छोटा करना भूल गया और दूसरा दृश्यों को काटना भूल गया। इसलिए मध्यांतर के बाद या तो कोई दृश्य ख़त्म नही होता या अगला दृश्य शुरू होने तक बीच में कुछ ऊल जलूल सी घटना दिखायीं जाती हैं , जैसे मजनू पेड़ के पास बैठा पेड़ से बातें कर रहा है। फ़िल्म आपको मध्यांतर के बाद तो इतना पकाती है के मजनू बाद में पागल होता है आप पहले पागल होने लगते हैं।

इस तरह की पुरानी फिल्मों में कम से कम गाने तो अच्छे होते थे यहाँ गाने भी ठीक ठाक हैं लेकिन आते एक के पीछे एक फ़िल्म की शुरुआत में।

फ़िल्म को दुखांत और दुःख से भरी बनाने के चक्कर में निर्देशक इतना डूबे के फ़िल्म में कुछ कहानी के  डालना भूल गए। इस फ़िल्म को आप अपने सब्र की सीमा को जांचने के लिए देख सकते हैं।

मेरी रेटिंग एक स्टार , देना में शून्य चाहता हूँ पर नायक नायिका के अच्छे अभिनय के लिए एक स्टार दिया जा सकता है।


Friday, September 7, 2018

Laila Majnu is intellectual bullshitting!!

My video observations of the self obsessed pretentious story telling of team Imtiyaz Ali


पलटन - सिर्फ शोर शराबा और थोड़ा बहुत खून खराबा !

पलटन हमारे इतिहास के एक भुला दिए गए कारनामे पर आधारित फ़िल्म है। फ़िल्म में एक अच्छी कहानी को अच्छे ढंग से कहने का एक बड़ा मौका जे पी दत्ता के पास था जिसे उन्होंने गँवा दिया।



नाथुला १९६७ की लड़ाई पर बनी ये फ़िल्म १५५ मिनट लम्बी है और पूरी लम्बाई में शायद दस मिनट की फ़िल्म देखने लायक है वो भी बस शुरुआत में। फ़िल्म की कहानी में बार बार निर्देशक दर्शकों में जोश पैदा करने की कोशिश करते हैं लेकिन फ़िल्म  के संवाद और कुछ कलाकारों का अभिनय ढीला होने की वजह से फ़िल्म जोश की बजाय सर दर्द और  नींद पैदा करती है।

फ़िल्म का क्लाइमेक्स जो इसका सबसे आकर्षक पहलू हो सकता था वही इस फ़िल्म का सबसे पकाऊ और उबाऊ हिस्सा है। क्लाइमेक्स अचानक ही शुरू होता है   जो की नाथुला पास पर कब्ज़ा जमाने की चीनी कोशिश थी। इस सिलमैक्स के दृश्यों में कुछ ख़ास नयापन नही है। आप लगभग दो घंटे के ऊपर इस क्लाइमेक्स का इंतज़ार करते हैं और फिर एक दम ढीले ढाले से एक्शन से आप और निराश होते हैं।

पूरी फ़िल्म में शायद एक भी याद करने लायक संवाद नही है। सोनू सूद और अर्जुन रामपाल के साथ हर्षवर्धन का अभिनय थोड़ा बहुत ठीक है लेकिन कहानी के अंदर कुछ ख़ास नही होने की वजह से वो भी फ़िल्म को संभाल नही पाते हैं।

बुरा बस ये लगता है के जिस निर्देशक ने कभी देखने लायक फिल्में बनायीं जैसे बॉर्डर और ग़ुलामी वो इस बार इतनी बुरी तरह से कैसे चूका ?

फिल्म को न देखें तो बेहतर होगा इससे बेहतर आप जे पी दत्ता की पुरानी फिल्मों को टी वी देख लीजिये।

मेरी रेटिंग एक स्टार !


Sunday, September 2, 2018

A blind man's trailer will catch your gaze big time !

Some trailers just come out of nowhere and hit you big time. This one of course catching our attention is no big surprise because this one is helmed by one of our finest thriller and dark cinema makers called Sriram Raghavan. This trailer carries his distinct story telling stamp.



The trailer holds you well with its trailer. It has brilliant moments and lines. The ones between Radhika Apte and Ayushman. The chemistry between Tabbu and Ayushman. There is a murder. We are totally in the trailer's grasp by the time it ends. Yet we do not know what exactly is the plot. Not because its one of those dumb high on glitz less on content trailers. The trailer holds us because we know the director is deliberately not telling us anything. We want to watch the movie just for this precise reason. We know there is a story of darkness and intrigue here.

Ayushman is brilliant in the trailer and that is only expected from him. The attraction point, literally of this trailer is Tabbu. She is one actor who refuses to lose her charge and charm after all these years and the trailer is watchable because of her too.

Sriram Raghavan has given us another  content based trailer which points to a movie which is now in the must watch list of those who search for content based cinema in this era of screen count, remixed gutter songs and blind aggressive hype.  There you go the word blind is so powerful after this trailer, no ?




Is this the end of the Khan triumvirate kingdom in Bollywood?

2018 has been a very unique year. In a lot of ways this has been an interesting year for those who can understand the historical churns...