कभी कभी बस बिना ज़्यादा शोर किये कुछ निर्देशक हमें ऐसी कहानी दिखा देते हैं के देख कर मज़ा आ जाता है। निर्देशक जोड़ी रही अनिल बर्वे और आदेश प्रसाद ने एक ऐसी फ़िल्म हमारे सामने रख दी है के आप फ़िल्म देख कर जब बाहर निकलते हैं तो थोड़ा बहुत अपने लालच को नियंत्रण में रखने की सोच लिए निकलते हैं।
सबसे बड़ी बात ये के निर्देशकों ने कहीं भी लालच की कमज़ोरी का कोई उपदेश नही दिया है। सोहम शाह के विनायक में लेकिन थोड़ा बहुत हम सबको अपना चेहरा दिखेगा।
कहानी विनायक के बचपन से शुरू होती है जब विनायक ,उसका भाई और उसकी माँ तुमबाड़ में छुपे ख़ज़ाने के बारे में जानते हैं लेकिन वहाँ से चले जाने का फैसला करते हैं। विनायक के बचपन में तुमबाड़ की भयानकता होती है लेकिन वो फिर भी छुपे ख़ज़ाने की तलाश में उसी जगह वापस बार बार आता है। इस ख़ज़ाने से उसे एक अच्छा जीवन तो मिलता है लेकिन फिर धीरे धीरे बढ़ता उसका लालच एक दिन उसे ख़ज़ाने के मालिक एक पीड़ित भटकते राक्षस हस्तर के हाथों मरवा देता है। कहानी के अंत में अच्छा ये होता है के विनायक का बेटा उस लालच के रस्ते से हट जाता है।
फ़िल्म की ख़ूबी ये है के कहानी कभी भी अपने बहाव में न धीमी होती है न यहाँ वहाँ भटकती है। पूरी फ़िल्म आपको उसके पात्रों के बढ़ते लालच और फिर उससे होते उनके गलत अंजाम को दिखाती है जैसे विनायक के धोकेबाज व्यापारी मित्र राघव की हस्तर के हाथों होती मृत्यु।
तुमबाड़ का छायांकन, कहानी की पटकथा और पार्श्व संगीत उम्दा स्तर का है। फ़िल्म की कहानी को प्रभावी बनाने में ये तीनों आगे का काम करते हैं। सोहम शाह ने बहुत अच्छा अभिनय किया है और उनके पुत्र का अभिनय करने वाले बाल कलाकार भी अच्छे हैं।
तुमबाड आपको अपने हॉरर से कम डराती है लेकिन अपने अंदर छुपे लालच से ये हमें शायद ज़्यादा अवगत करा देती है। फ़िल्म ज़रूर देखें अगर आपको थोड़ा सोच विचार के बनायीं गयी अच्छी फ़िल्म देखना पसंद है तो।
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