अजीब बात है के बिना ढोल नगाड़े और तरह तरह के प्रमोशन के बिना रिलीज़ हुई ये फ़िल्म कितनी अच्छी बनी है और अपनी शुरुआत के कुछ पंद्रह मिनट में आपका दिल जीत लेती। अपनी अपनी मुसीबतों ,ज़िन्दगी की चोट झेलते किरदार एक दूसरे के साथ जुड़ते हैं और दो घंटे से थोड़ा काम समय में निर्देशक ने आपके सामने ज़मीन से जुडी ऐसी कहानी पेश की है जो आपको मुस्कुराने और कहीं कहीं थोड़ा सोचने के लिए छोड़ देती है।
अपनी ज़िन्दगी से उलझता एक नवयुवक अविनाश (दुलकर सलमान) एक दिन ये समाचार पाता है के उसके पिता की मृत्यु हो चुकी है। अपने दोस्त शौकत के साथ वो दक्षिण भारत की एक यात्रा पे मजबूरन निकलता है क्यूंकि उसके पास एक दूसरी महिला का शव आ जाता है और उसके पिता का शव उस महिला के घर चला गया है।
फ़िल्म यहाँ से लगातार घुमाव लेती है और मैसूर ,ऊटी ,कुमारकोम और कोयम्बटूर जैसे शहरों से घूमती अपने आखिरी हिस्से में पहुँचती है। यहाँ इस कहानी में इरफ़ान की इतनी ज़बरदस्त भोपाली लहजे में बोलने वाले शौकत की कॉमेडी है। उनकी और दुलकर सलमान के बीच की सहजता और नोंक झोंक फ़िल्म को एक रंग देती है। मिथिला पपारकर कहानी का तीसरा पात्र हैं और उन्होंने भी अपने ढंग से इस तिकड़ी को देखने लायक बनाया है।
दुलकर सलमान की तारीफ करनी होगी के इरफ़ान जैसे ज़बरदस्त कलाकार के सामने भी वो दर्शकों को अपने भी कुछ होने का एहसास कराते हैं। अगर उनकी आवाज़ को डब नही किया गया है तो ये दक्षिण भारत का पहला अभिनेता है जो इतनी ज़बरदस्त हिंदी बोलता है। दक्षिण भारत से आने वाले अभिनेताओं को छवि को दुलकर बदल सकते हैं।
फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ूबी है के निर्देशक ने बिना लेक्चर दिए बिना जज़्बाती हुए दर्शकों के सामने एक दिल को छूने वाली कहानी परोस दी है। कहीं भी वो कहानी को ढीला नहीं होने देते। ये किसी एक्शन फ़िल्म के जैसी पटकथा नहीं है लेकिन फिर भी इस फ़िल्म की सादगी में एक ऐसी चमक है जो आप फ़िल्म देखते हुए संवादों , गानों और घटनाओं के ज़रिये ही महसूस करते हैं।
इस हफ्ते बॉलीवुड ने पूरे ढोल ताशे के साथ दो फिल्में रिलीज़ की हैं , लेकिन कहते हैं के भारी बर्तन गिरता भी है तो ज़्यादा आवाज़ नहीं करता। कारवां वो भारी बर्तन है। ज़रूर देखें।
No comments:
Post a Comment