जब आप इस फ़िल्म को देखते हैं तो आप नास्तिक से आस्तिक बन जाते हैं। क्योंकि फ़िल्म में कहानी है नही और अक्सर ये लगता है के कैमरा चालू करके देओल परिवार और बाकी अभिनेता अपने हिसाब से अभिनय कर रहे थे। इसलिए फ़िल्म का बन जाना और परदे पर आ जाना ईश्वर का चमत्कार ही माना जाना चाहिए।
इससे भी ज़्यादा दुःख इस बात का होता है के धर्मेंद्र हमारी सिनेमा के इतिहास के सबसे बेहतरीन कलाकारों में एक हैं। सनी ने भी कई अच्छे पात्र निभाए हैं। इन दोनों को जब इतनी स्तरहीन फिल्मों में आप देखते हैं तो आप इतना ज़रूर सोचते हैं के क्या एक अच्छी कहानी और अच्छा निर्देशक ढूंढ़ना इतना मुश्किल है और क्या बाकी का काम ये दो कलाकार अपनी पुरानी विरासत और वफादार प्रशंसकों के सहारे निकालेंगे?
फ़िल्म की कहानी का उद्देश्य अच्छा है के कैसे भारतीय आयुर्वेद हमें स्वस्थ बना सकता है। कैसे अक्सर नया हस्पतालों और दवा कंपनियों का गोरख धंदा हमारी जेबें और स्वस्थ्य दोनों को ढीला कर रहा है इसपर भी इस फ़िल्म में रौशनी डाली जा सकती थी। लेकिन निर्देशक इसे आम मसालों में ठीक से भिगो के पेश नही कर पाया। सनी देओल के भाग कर सामने से आते ट्रक को रोक देने के दृश्य इस फ़िल्म को एकदम फूहड़ बना देते हैं।
कुछ दृश्यों और सम्वादों पर आप हँसते हैं लेकिन बाकी फ़िल्म घिसट घिसट के चलती है। इस फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप होना तय है लेकिन फिर भी इससे देओल परिवार की लोकप्रियता काम नही होगी उन्हें ज़रुरत एक अच्छे निर्देशक की है।
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